पीली बस...

लोग भले ही आज शहरों की चकाचौंध भरी ज़िन्दगी के पीछे आतुर हैं...और इस भाग दौड़ 
भरी ज़िन्दगी में हम गांव की परंपरा ,संस्कृति के गृह जीवन को कहीं न कहीं 
भूलते जा रहे हैं...कौन कहता है कि गांव में कुछ नहीं है और अब शहरी जीवनशैली 
की तरफ खिंचे चले जा रहे हैं...बचपन की मीठी यादें जो किसी शहर से नहीं बल्कि 
गांव से ही जुड़ी हुई हैं...जो आज भी कहीं न कहीं हमारी यादों में बसी हुई 
हैं...बचपन में परीक्षा होने पर जितनी खुशी परीक्षा खत्म होने की होती 
थी...उससे ज्यादा खुशी गांव जाने की होती थी...और वह खुशी दो गुनी तब हो जाती 
थी जब गांव जाने वाली बस आंखों के सामने दिख जाती थी...वहीं गांव जाने वाली बस 
का पीला रंग आज भी आँखों में बसा हुआ है... जो कि हमारे क्षेत्र के नाम से 
चलती थी..."बुंदेलखंड"
                       गांव पहुंचते ही बस से नीचे उतरने पर ऐसा लगता था कि 
अब उसे किसी से व्यक्त नहीं किया जा सकता...भले ही एक या दो दिन के लिए ही सही 
पर उन दो दिनों के दौरान के हर पलों को हम जीना चाहते थे और गांव की गलियों और 
खेतों में घूमते हुए  गांव के तालाब में घंटों नहाना... खजूर के पेड़ के पीछे 
से सूरज का उगना और अस्त होना...ऐसा लगता था जैसे मानो खुले आसमान  में उड़ती 
हुई इकलौती पतंग हम ही हों...कुछ लंगोटिया यारों के साथ मिलकर बिताए हुए हर उस 
पल को एहसास करके यही लगता है कि आज की यंग जनरेशन तो जी के फेरों में उलझकर 
4G और पब G कर रहे हैं...इस तरह दो दिनों के दौरान गांव की 
गलियों,तालाबों,खेतों में बिताए हुए पल ऐसे लगते थे... जिन्हें हम गुल्लक में 
पैसों की तरह सहेज कर भी रखना चाहते थे ताकि जब चाहें तब गुल्लक को तोड़कर 
गुल्लक में रखे पैसों की तरह उन पलों को जी लें...पर जैसे-जैसे दो दिनों के 
खुशियों की  खात्मे की घड़ी नजदीक आती थी...मन में एक उदास की हिलोर सी उठने 
लगती थी...और बाद में वह समय भी आता घड़ी की सुईयों की आहट और पीली बस के तेज 
हॉर्न की आवाज़ जो वापिस लौटने के लिए हॉर्न बजा रही हो...और जितनी खुशी गांव 
आते समय पीली बस को देखकर होती थी...वह अब उदासी में बदल जाती...बस पर बैठते 
ही पिछले दो दिनों के हर पल सिनेमा के पर्दे की तरह आंखों के काली पुतली में 
तैरने लगतेचलने लगते...बस हॉर्न बजाते हुए आगे बढ़ती जाती गांव पीछे छूटता 
जाता...और हम बस की खिड़की से पीछे गांव को निहारते रहते जब तक गांव की आखरी 
झलक दिखती रहती और अंत में वापिस आने पर वही वापिस स्कूल के बस्ते के बोझ में 
उलझ जाते...बचती तो सिर्फ यादें हैं...जिन्हें आज भी फुरसत के पलों को बंद 
आंखों से सिर्फ जीने की कोशिश करते है...जो शायद आज के जीवन में नहीं रहा ।

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